Saturday, December 8, 2007

आई पकड़ में आत्मा

अमिताभ पांडेय


मौत का विज्ञान
बचपन में किसी दोस्त ने एक वैज्ञानिक प्रयोग की बात बताई थी। एक मरते हुए आदमी को कांच के बक्से में सीलबंद कर दिया गया, जैसे ही मरा, कांच चटक गया और उसकी आत्मा बाहर निकल गई। यह प्रयोग आज तक मेरे लिए पहेली है। कोई नहीं जानता कि इसे कब, कहां और किसने किया था और न ही यह समझ पाया हूं कि आत्मा जिसे न आग जला सकती और न ही कोई शस्त्र जिसे भेद सकता है, उसे शीशा चटका कर बाहर निकलने की क्या जरूरत थी? क्या वह रोशनी से भी ज्यादा मोटी होती है?

पहेली
जिंदगी और मौत की पहेली हमेशा से इंसान को उलझाए हुए है। वह क्या है जो हमें जीवित रखता है और जिसके न रहने पर हम वापस मिट्टी हो जाते हैं। गुनी-ज्ञानीजन जिसे आत्मा कहते आए हैं, क्या जीवन उसी के खेल है? क्या इस पर सिर्फ मानव का विशेष अधिकार है या सारे पशु, पेड़ों को भी हासिल है? फिर क्या बाकी अचेतन जगत मिट्टी, पत्थर, पहाड़, नदी, समंदर, धरती, आदि ग्रहों और तारों-गैलेक्सियों की भी आत्मा होती है? सारे प्राचीन प्रागैतिहासिक धर्म इसका जवाब हां में देते आए हैं और आज के सभी लगभग सभी धर्म एक परमात्मा या विश्वआत्मा की परिकल्पना करते हैं, जिसने सारी सृष्टि की रचना की और उसे चलाती है। ओल्ड टेस्टामेंट मैं आस्था रखने वाले तीनो ही धर्मं, इस्लाम यहूदी और इसाई होश संभालने को इंसान का पहला पाप मानते हैं और इसकी सजा के तौर पर मौत का तोहफा मिला है इंसान को। अच्छे बुरे की समझ ही होश संभालने की निशानी है पर यह बात पाप कैसे यह बात मेरी समझ के परे है। नादान आदम और हव्वा को जब अच्छे बुरे कि समझ ही नहीं थी तो विद्रोही फ़रिश्ते के बहकाने पर 'जीवन के दरख्त' का फल खाना पाप कैसे हो गया? पर किससे अपील करते और कौन वकालात करता उनकी? आदम को तो पसीने कि कमाई खाने कि सजा मिली पर हव्वा को औलाद जनने का दर्द सहने कि सजा मिली। दोनो को ईडन से निकाल बियाबान में भटकने के लिए छोड़ दिया। किताबी मजहब वाले तो शैतान को कोस कर पल्ला झटक लेते हैं पर हिन्दू धरम मैं तो यह भी सुविधा नहीं है, चूंकि ब्रह्म कि मर्जी के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता है तो सारे पाप पुण्य का जिम्मेदार भी वही है। बड़ी उल्झावानहार बातें हैं धरम की।

विज्ञान की सुलाझावनहारी बातें
आज का विज्ञान क्या कहता है विश्वआत्मा और जीवन के बारे में? दर्शन और धर्मशास्त्रों के शब्दजाल में उलझे बिना, विज्ञान छोटे-छोटे सवालों को सुलझाने में यकीन रखता है, बड़े-बड़े सवालों की परतें बिना सर्वज्ञाता होने के दंभ के खुलती जा रही हैं। जो आंखों से, टेलिस्कोप से, खुर्दबीन (माइक्रोस्कोप) से दिखता है और दूसरों को दिखाया जा सकता है, जिसे परखा जा सकता है और बिना शक साबित किया जा सकता है, उसे ही विज्ञान का सर्टीफिकेट मिलता है। ज्ञान के पर्वत पर, आंखों पर आस्था की पट्टी बांध कर चढ़ना नामुमकिन है, उसकी ढलानों पर न जाने कितनी परिकल्पनाओं के कंकाल बिखरे बड़े हैं। विज्ञान में जो सिद्ध हो जाए, उसे ही सिद्धांत का दर्जा मिलता है।
केमिकल खेला
इलेक्ट्रॉन, परमाणु, अणु, पत्थर, पहाड़, नदी, समंदर, धरती आदि ग्रह और तारे-गैलेक्सियां जीवित नहीं हैं, यह आज सब जानते हैं, तो कैसे मानें कि उनकी आत्मा होगी। इनके गुण-धर्म उनमें निहित पदार्थों के आपसी व्यवहार पर और वातावरण निर्भर हैं, जिनकी व्याख्या भौतिकी के नियम बिना किसी अपवाद के कर सकते हैं। रसायन विज्ञान बिना किसी खारी या मीठी आत्मा के सहारे बिना, गुड़ की मिठास और समंदर के खारेपन के समझा जा सकता है।क्या आपने मुर्दा नमक चखा या देखा है? जीवजगत का मामला थोड़ा ज्यादा ही पेचीदा है, पर विज्ञान धीरे-धीरे ये पेच भी खोल रहा है। मुन्नाभाई की जुबान में "बोले तो , लाइफ एक केमिकल खेला है ! इसमे लोचा हुआ तो बाडी को टेंशन हो जाता है और ज्यादा बात बिगड़ी तो खेल खल्लास"। यहां भी वैज्ञानिकों को आत्मा के कोई सबूत नहीं मिल रहे हैं।
हमारा शरीर खरबों कोशिकाओं का बना होता है जो आमतौर पर इतनी छोटी होती हैं कि उनको खुर्दबीन की मदद से ही देखा जा सकता है। इनमें से हर एक कोश उतना ही जीवित होता है जितने कि हम। एक कोशिका भी जबर्दस्त जटिल रचनाओं वाली होती है। कोशिका दीवार के अंदर तो पूरा एक रासायनिक औद्योगिक क्षेत्र ही पसरा होता है। जिसमें परतदार रचनाओं पर स्थित राइबोसोम, आरएनए की मदद से लाखों किस्म के प्रोटीनों का उत्पादन करते हैं। आरएनए कोशिका के नियंत्रक केन्द्रका में मौजूद डीएनए से हर कार्य व्यापार का खाका लेकर आते हैं। प्राणियों में आदि बैक्टीरिया के वंशज माइटोकांड्रिया जो उनके कोशों में शायद दो अरब साल पहले रच-बस गए हैं, भोज्य पदार्थों से ऊर्जा निकाल कर इस्तेमाल लायक अणुओं (एटीपी)- में सहेज कर जरूरत की जगह पर भेजते हैं। हरे पौधों में क्लोरोप्लास भी आदि सहयोगी बैक्टीरिया हैं जो सूरज की रोशनी से भोजन बना कोशिकाओं के साथ बांट कर खाते हैं।
आज प्रयोगशाला में कोशिका के सारे प्रोटीनों- आरएनए और डीएनए का कृत्रिम तौर पर बनाया जा चुका है और शायद आने वाले दस साल में कृत्रिम कोशिका भी बिना आत्मा की छौंक लगाए बना ली जाएगी। इसकी उम्मीद बढ़ती जा रही है। कोशिका की जीवंतता का रहस्य रसायन विज्ञान की पहुंच में है- यह किसी से छिपा नहीं है।

उम्रदराज अमर बैक्टीरिया
जीवन के इतिहास में, धरती पर ३.८ खरब साल में आज से सौ करोड़ साल पहले तक सिर्फ एककोशीय जीवों जैसे बैक्टीरिया, अर्किया और अमीबा जैसे जीवों का साम्राज्य था। बैक्टीरिया आदि की सिर्फ अकाल मृत्यु होती है, अन्यथा अनुकूल आबोहवा में तो वे "अमर" ही होते हैं। बैक्टीरिया बंट कर एक से दो, दो से चार और चार से आठ, इस तरह मुद्रास्फीति की तरह बढ़ते ही जाते हैं, जब तक खुराक और ऊर्जा मिलती रहे। खराब हालात में ये सुप्तावस्था में चले जाते हैं और जरूरत पड़े तो लाखों साल तक सुरक्षित खोल में अलसाये पड़े रहते हैं अपने खोल में। हाल ही में जमीन में मीलों नीचे से और ध्रुवीय बर्फ में से तीन करोड़ साल से ज्यादा उम्रदराज बैक्टीरिया को निकाल कर जगाने में वैज्ञानिकों को सफलता मिली है।

पहला पाप
बैक्टीरिया के ही जमाने में सेक्स का चलन शुरू हुआ था, पर तब वह जरा चालू किस्म का था। यों ही घूमते-फिरते मौका मिलने पर वे कुछ जींस का आदान-प्रदान कर लिया करते और इसमें वे जात-कुजात की भी परवाह नहीं करते थे। आज भी उनकी यह खुराफात चालू है कभी कभी इस शिकार के जींस दूसरे में डालने से बाज नहीं आते हैं।बिल्ली में मछली के जींस और मटर में मिले खून बनाने वाले "कबाड़ जीन" शायद इसी तरह की हेरा-फेरी का नतीजा हैं। पैंसठ करोड़ साल पहले जब बहुकोशीय जीव स्वतंत्र कोशिकाओं के सहकार से बने और आगे चलकर नर और मादा जीव मिल कर "सभ्य" तरीके संतान पैदा करने लगे तो दुनिया में मौत का भी आगाज हुआ। मशहूर खगोल विज्ञानी कार्ल सेगन का यह रोचक सुझाव ईसाई, यहूदी और इस्लामिक आदिग्रंथ ओल्ड टेस्टामेंट की धारणा की स्वीकृति नहीं है। क्या तब के हमारे जीव पुरखे ने शैतान के बहकाने पर -जीवन वृक्ष- का फल खाया था और आदम और हव्वा की तरह वे भी नासमझ थे। मौत की वजह -पहला पाप- नहीं, बल्कि जटिल जीवों में "सहकार से जुड़ी कोशिकाओं" में तालमेल बिगाड़ना होता है।
जीवों के जटिल होने के साथ उनकी उम्र बढ़ने लगी और साथ ही जीनों की जटिलता भी बढ़ने लगी। इससे उम्र चढ़ते जीनों में खराबी आने की संभावना ज्यादा होती है। शरीर की कोशिकाएं अब अनिश्चितकाल तक विभाजन नहीं कर सकती हैं। बार-बार विभाजन से गुणसूत्रों से सिरे छीजते जाते हैं और कोशिकाओं की रिपेयर प्रणाली बार-बार चूक करने लगती है। उम्र बढ़ने पर सत्रहवें गुणसूत्र पर स्थित टीडी-५३ जीन में खराबी होने पर शरीर के अलग-अलग कोशिकाएं अनियंत्रित होकर विभाजन कर कैंसर के ट्यूमर बना सकती हैं। कोशिकाओं की जन्म-मृत्यु तो हमारे जन्म से ही शुरू हो जाती है। कोशिका का विभाजन से जन्म और टीडी-५३ जैसे जीनों से नियंत्रित मृत्यु दोनों ही जरूरी है। अगर एक कोशिका बिना मरे दिन में पचास बार भी विभाजित हो तो साल भर में ही ब्रह्मांड में मौजूद सारे परमाणुओं से ज्यादा संतान कोशिकाएं बनाने कि संभावना रखती है! जो कैसे भी संभव नहीं है।

ऑयल की तरह आत्मा
जन्म के वक़्त तो हमारे पास जरूरत से दुगने से भी ज्यादा दिमागी कोष न्युरोंस होते हैं, पर उनके कनेक्शन्स ठीक से सेट नहीं बने होते हैं। दूध छूटते छूटते फालतू के न्युरोंस को १७वे गुणसूत्र पर मौजूद ced-9 जीन मार देता है और बाक़ी के कनेक्शन्स कि ठीक से सेटिंग करना चालू कर देता है। खैर, बचपन में कोशिकाएं ज्यादा बनती हैं और मरती कम हैं, पर १८-२० की उम्र तक जन्म और मृत्यु का पलड़ा बराबरी पर आ जाता है। और फिर? चौंकिए मत। फिर जिंदगी की ढलान शुरू। चालीस की उम्र हमारी प्राकृतिक सीमा है, उसके बाद की जिंदगी तो तकनीक और विज्ञान की गिफ्ट है। दस हजार साल पहले तक, पशुपालन और कृषि के आविष्कार के पहले बिरलों को ही पचास तक पहुंचना नसीब होता था। जो भी हो, आज का चिकित्सा विज्ञान भी अस्सी के पार शायद कुछ मदद कर पाएगा। दिमाग, दिल, जोड़ और पेट की क्या दशा होती, उससे तो सब वाकिफ ही हैं। एक १९७० के मॉडल की कार की तरह कारबोरेटर संभालो तो गियर खड़खड़ाने लगते हैं। पर ऐसा धीरे-धीरे क्यों होता है? क्या आत्मा ऑयल की तरह धीरे-धीरे लीक हो रही है? या फिर दिल की धड़कन बंद होते ही "प्राण पखेरू" उड़ जाते हैं। ऑक्सीजन की सप्लाई बंद होने पर दिमाग सबसे पहले जवाब दे देता है। अगर ताप कम हो तो दिल, फेफड़े, गुर्दे, जिगर, आंखें और खाल खुछ घंटों तक जीवित रह सकती हैं।
अगर इनको किसी जरूरतमंद को प्रत्यारोपित कर दिया जाए तो हम अपने शरीर को कुछ हिस्सों को न सिर्फ अपनी "आत्मा" से बिछड़ने के बाद भी जिंदा रख सकते हैं, बल्कि अंग दान कर कुछ पुण्य भी कमा सकते हैं। कोमा की बेहोशी में हमारे दिमाग का सचेत हिस्सा खराब हो जाता है, फिर भी शरीर जिंदा रहता है और इसके उलट पक्षाघात में शरीर तो खराब हो जाता है, पर दिमाग पूरा चुस्त-दुरुस्त रहता है। तो क्या कोमा में आत्मा शरीर में अटकी रहती है और पक्षाघात में दिमाग में? वैज्ञानिक मत से दो ऐसा है कि मरने पर कोई आत्मा-वात्मा बाहर नहीं निकलती, क्योंकि वह अंदर कभी आई ही नहीं थी। माता के गर्भ में अंडाणु और पिता के शुक्राणु से जो दोनों ही जीवित हैं, गर्भ बनता है, वह भी जीवित गर्भ से पनपे हम भी जीवित, तो फिर हमारी खास आत्मा ने प्रवेश कब किया?

टलेगा बुढ़ापा
एक तरह से देखें तो हम, हमारे सारे पुरखे, उनकी हर कोशिका "गर्मी प्रेमी" आदि बैक्टीरिया की संतान हैं, जो आज से लगभग चार अरब साल पहले महासागर के गर्भ में ज्वालामुखियों की आंच में पैदा हुआ और पनपा था। इस मायने में तो हम अमर हैं। हम, पुरखों और संतानों की अटूट शृंखला है और हम अपने मन और विचारों को संस्कृति के द्वारा जिंदा रखने में कामयाब हैं। वैसे पुराने का मरना भी जरूरी है, नहीं तो नए को जगह कहां से मिलेगी। पर हां, बुढ़ापे को सौ या दौ सो साल तक टालना इस शताब्दी के अंत तक संभव हो सकता है!

Thanks to Arvind Shesh for putting this article on his blog "Charvk"

3 comments:

Anonymous said...

"For doubt, reason, science, love, beauty, freedom, democracy and secular humanism. And against everything that is against our blue planet, life and humanity."

Pande Saab ki Jai ho. This is not a comment about this post...I haven't read it yet..just about to start. I just want to comment about the description of the Blog...very passionately written. I love it. Lets save the planet from ignorance and nonsense!!!

Ashish Maharishi said...

बहुत कुछ समझ में आज आया है

Ashish Maharishi said...
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